नई दिल्ली
अगर सभी देश अपनी जलवायु सुधारने की प्रतिज्ञाओं को पूरी तरह लागू करें, तो भी इस सदी में वैश्विक तापमान 2.3 से 2.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है. यह आंकड़ा पिछले साल की भविष्यवाणी 2.6-2.8 डिग्री से थोड़ा कम है. लेकिन वर्तमान नीतियां अब भी धरती को 2.8 डिग्री के रास्ते पर ले जा रही हैं, जो पिछले साल के 3.1 डिग्री से कम है. यह बात संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) की 'एमिशन गैप रिपोर्ट 2025' में कही गई है.
रिपोर्ट कहती है कि दुनिया अभी भी पेरिस समझौते के 1.5 डिग्री के लक्ष्य से बहुत दूर है. अगले दशक में तापमान अस्थायी रूप से 1.5 डिग्री से ऊपर चला जाएगा, जब तक देश जल्दी कदम न उठाएं.
यूएनईपी की कार्यकारी निदेशक इंगर एंडरसन ने कहा कि देशों को पेरिस समझौते के तहत तीन मौके मिले हैं वादे निभाने के लिए, लेकिन हर बार वे लक्ष्य से चूक गए. राष्ट्रीय योजनाओं से कुछ प्रगति हुई है, लेकिन यह काफी तेज नहीं है. इसलिए हमें बिना रुके उत्सर्जन कम करने की जरूरत है, खासकर मुश्किल भू-राजनीतिक स्थिति में.
यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन से ठीक पहले आई है, जहां विश्व नेता इकट्ठा होंगे. आइए रिपोर्ट की मुख्य बातें समझते हैं.
पेरिस लक्ष्य से कितना दूर हैं हम?
पेरिस समझौता 2015 का है, जिसमें दुनिया ने तय किया कि तापमान बढ़त को 1.5 डिग्री तक सीमित रखना है. लेकिन रिपोर्ट कहती है कि अगर देश अपनी वर्तमान प्रतिज्ञाओं (एनडीसी) पूरी करें, तो तापमान 2.3-2.5 डिग्री बढ़ेगा. यह थोड़ा बेहतर है, लेकिन अभी भी खतरनाक. वर्तमान नीतियां 2.8 डिग्री का रास्ता दिखा रही हैं.
रिपोर्ट चेतावनी देती है कि अगले 10 सालों में तापमान अस्थायी रूप से 1.5 डिग्री पार कर जाएगा. इसे रोकने के लिए बढ़त को सिर्फ 0.3 डिग्री तक सीमित रखना होगा. 2100 तक तापमान को नीचे लाना होगा. अगर ऐसा न हुआ, तो बाढ़, सूखा और चरम मौसम जैसी आपदाएं बढ़ेंगी.
देशों की प्रतिज्ञाएं: कितनी पूरी हुईं?
पेरिस समझौते के 195 देशों में से सिर्फ एक तिहाई (यानी 65 देश) ने इस साल नई या अपडेटेड राष्ट्रीय प्रतिज्ञाएं (एनडीसी) जमा कीं. ये देश वैश्विक उत्सर्जन का 63 प्रतिशत कवर करते हैं. बाकी देशों ने पुरानी योजनाओं को ही जारी रखा.
जी20 देश, जो वैश्विक उत्सर्जन का 77 प्रतिशत हिस्सा हैं. ये भी 2030 के अपने लक्ष्यों को पूरा करने के रास्ते पर नहीं हैं. 2035 तक और गहरी कटौती की जरूरत है, लेकिन वे भी पीछे हैं. रिपोर्ट कहती है कि अमीर देशों ने गरीब देशों को मदद देने का वादा किया था, लेकिन वह भी पूरा नहीं हो रहा.
2024 में उत्सर्जन: रिकॉर्ड स्तर पर
2024 में वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 57.7 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड समकक्ष (जीटीसीओ2ई) पहुंच गया. यह पिछले साल से 2.3 प्रतिशत ज्यादा है. इस बढ़ोतरी का आधा से ज्यादा हिस्सा जंगलों की कटाई और भूमि उपयोग में बदलाव से आया. जीवाश्म ईंधन (कोयला, तेल, गैस) से उत्सर्जन भी बढ़ता रहा.
शीर्ष उत्सर्जक देशों में भारत और चीन ने सबसे ज्यादा वृद्धि दर्ज की. यूरोपीय संघ अकेला बड़ा अर्थव्यवस्था वाला क्षेत्र था, जहां उत्सर्जन कम हुआ. रिपोर्ट कहती है कि अगर 2019 के स्तर से तुलना करें, तो 2030 तक उत्सर्जन 26 प्रतिशत कम और 2035 तक 46 प्रतिशत कम होना चाहिए. तभी 1.5 डिग्री का लक्ष्य संभव है.
विशेषज्ञों की राय: जागने का समय
जलवायु विशेषज्ञों ने रिपोर्ट को चेतावनी का संकेत बताया है. यूनियन ऑफ कंसर्न्ड साइंटिस्ट्स की रेचल क्लीटस ने कहा कि ये आंकड़े चिंताजनक, गुस्सा दिलाने वाले और दिल तोड़ने वाले हैं. अमीर देशों की कमजोर कार्रवाई और जीवाश्म ईंधन हितों की बाधा इसके लिए जिम्मेदार हैं.
एम्बर के रिचर्ड ब्लैक ने कहा कि राष्ट्रीय नवीकरणीय ऊर्जा योजनाएं साफ ऊर्जा संक्रमण की सकारात्मक तस्वीर दिखाती हैं. इंटरनेशनल क्लाइमेट पॉलिसी हब की कैथरीन अब्रेऊ ने जोर दिया कि पेरिस समझौता विफल नहीं हो रहा, बल्कि कुछ शक्तिशाली जी20 देश वादे निभाने में असफल हो रहे हैं.
तत्काल कार्रवाई की जरूरत
रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि बिना तेज और बड़े उत्सर्जन कटौती के, दुनिया आपदा वाली गर्मी में फंस जाएगी. यह गरीब और कमजोर देशों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाएगी. नवीकरणीय ऊर्जा, जंगलों की रक्षा और जीवाश्म ईंधन छोड़ना जरूरी है.
यह रिपोर्ट हमें याद दिलाती है कि समय तेजी से निकल रहा है. अगर हम अब नहीं चेते, तो आने वाली पीढ़ियां भुगतेंगी. जलवायु परिवर्तन सबकी जिम्मेदारी है, लेकिन अमीर देशों को नेतृत्व करना होगा.

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